यहाँ पर छोटी लड़कियाँ करती हैं महाबुलियो से अपने पूर्वजों का तर्पण


बांदा(अमर स्तम्भ)। पित्र पक्ष के लिए धार्मिक क्रिया कर्म के दुनिया भर में अपनाए जाने वाले विभिन्न तौर-तरीकों में से अलग उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड अंचल में प्रचलित महाबुलिया एक ऐसी अनूठी परंपरा है जिसे घर के बुजुर्गों के स्थान पर छोटी-छोटी बच्चियां संपादित करती है। समय में बदलाव के साथ हालांकि अब यह परंपरा जहां गांव तक ही सीमित रह गई है । अपना बुंदेलखंड लोक जीवन के विविध रंगों में पित्र पक्ष पर पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और समर्पण का भी अंदाज जुदा है , जहां एक और पूरे देश में पुरखो के तर्पण के लिए यहां पूजन अनुष्ठान श्रद्धा आदि के आयोजन होते हैं वहीं यहां पर बलिकायो की महाबुलिया पूजा बेहद खास है। पितृपक्ष के समय देश के अन्य जगहों में घर का पुत्र ही पूर्वजों का श्रद्धा एवं  तर्पण करता है वही बुंदेलखंड में छोटी-छोटी बच्चियां महबुलिया (एक कांटे की झाड़ी में रंग बिरंगे फूल लगाकर करती है ) यह पूरे 15 दिन तक चलने वाला गोधूलि बेला (शाम के समय ) पर पितृ आवाहन विसर्जन के साथ  आयोजन संपन्न होता है। इस दौरान यहां के गांव की गलियों में बिना किसी वाद्ययंत्र की मदद के पारपरिक लोकगीत ' लाओ चंपा चमेली के फूल सजाओ ऐसी महाबुलिया " आदि चौबारे बच्चियों की मीठी तोतली आवाज में गाए जाने वाले महाबूलिया के पारंपरिक लोकगीतों से महक उठती है । पूरे बुंदेलखंड में इसको लोक पर्व का दर्जा प्राप्त है । यहां पर यह छोटी छोटी बच्चियो का आयोजन होता है। इन महाबुलियो को तालाबों या पोखरों तक गाते बजाते ले जाती हैं और उनके रंग बिरंगे फूलों को कांटों से अलग कर पानी में विसर्जित कर देती हैं ,महा बोलिया विसर्जन के उपरांत वापसी में यही बच्चीया राहगीरों को भीगे हुए चने , गुड या लाई का प्रसाद बांटते हैं।गांव के बुजुर्गों ने बताया कि हर रोज यह अलग-अलग घरों में पूजा आयोजित होती है तो उसमें घर की एक वृद्ध महिला साथ बैठकर बच्चों को न सिर्फ पूजा के तौर तरीके सिखाती है बल्कि पूर्वजों के विषय में जानकारी देती है।इसमें पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रदर्शन के साथ सृजन का भाव निहित है। झाड़ में फूलों को पूर्वजों के प्रतीक के रूप में सजाया जाता है जिन्हें बाद में जल विसर्जन कराके तर्पण किया जाता है।दूसरे नजरिये से देखा जाए तो महबुलिया बच्चों के जीवन मे रंग भी भरती है। इसके माध्यम से मासूमों में धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार पैदा होते हैं। उनको फूल- पत्ती वनस्पतियों तथा रंगों से परिचित कराने के साथ साज-सज्जा करना भी सिखाया जाता है। एक महिला ने बताया कि बुंदेली लोक जीवन के विविध रंगों में महबुलिया बिल्कुल अनूठी परंपरा है जो देश के अन्य हिस्सों से अलग है। इसमें बेटियों के महत्व को प्रतिपादित किया गया है और उसे खुशियों का केंद्र बिंदु बनाया गया है। पितृपक्ष में बुजुर्ग जहां सादगी के साथ पुरखों के पूजन तर्पण आदि में व्यस्त रहते हैं और घर माहौल में सन्नाटा पसरा रहता है तब महबुलिया पूजन के लिए बालिकाओं की चहल- पहल ही खामोशी तोड़ती तथा वातावरण को खुशनुमा बनाती है। गाव की एक महिला  ने बताया कि सदियों पूर्व से प्रचलित परम्परा की शुरुआत कब हुई इस बात का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। मान्यता है कि पूर्व में कभी महबुलिया नाम की एक वृद्ध महिला थी जिसने इस विशेष पूजा की शुरुआत की थी। बाद में इसका नाम ही महबुलिया पड़ गया। उन्होंने कहा कि बदलते दौर में सांस्कृतिक मूल्यों के तेजी से ह्रास होने के कारण महबुलिया भी प्रायः विलुप्त हो चली है। आधुनिकता की चकाचौंध में बुंदेलखंड के नगरीय इलाकों में तो इसका आयोजन लगभग खत्म हो गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह दम तोड़ चली है।