घनश्याम सिंह 'वरिष्ठ पत्रकार व जागरूक कृषक'
अन्ना पशुओं के कहर से आम जनता को निजात दिलाने में नाकाम प्रशासन को उठाने होंगे ठोस कदम वर्ना विनाश हो जाएगा कृषि व किसान का
कागजों में चल रहीं गौशालाएं: खेतों को दिनरात चाट रहीं बैल-गायें: सड़कों पर अन्ना पशुओं की फौज कर रही दुर्घटनाएं
भुखमरी की कगार पर किसान,ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहे किसान सम्मान निधि के दो हजार रुपये व भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहीं पशु पालन व कृषि समर्थन योजनाएं
वर्ग संघर्ष का भयावह वातावरण उतपन्न कर रहे ये अन्ना पशु
दुर्घटनाओं, घटनाओं,भूख, बीमारियों के चलते अन्ना पशुओं की हालत भी खराब:निवाला बना रहे कौए, कुत्ते
हम एतिहासिक रूप से मंगल और चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पंहुच चुके हैं ऐसी स्थिति में वैश्विक सोच से मेल नहीं खा रही ये पशु वध बंदी: "भारत एक कृषि प्रधान देश है" यह पुरानी कहावत अब किसानों के लिए जले घाव में नमक व एक नश्तर की भांति चुभने लगी है,हां पहले कृषि प्रधान था देश पर अब नहीं, अब तो अन्ना पशु प्रधान हो गया है हमारा देश,जिसके फलस्वरूप पूरे देश में अन्ना पशुओं का भारी साम्राज्य स्थापित हो गया है,हालात ये हैं-
"घर में भी पशु ,बाहर भी पशु,
पशुओं का अंबार हो गया।
जित देखो तित पशु ही पशु हैं,
ये पशुमय संसार हो गया"
इतनी भारी तादात में घूम रहे अन्ना पशुओं का समाज या सरकार विस्थापन नहीं कर सकती, जहां समाज में समस्याओं के चलते पशु पालक व किसान अपने परिवार का ठीक से पालन पोषण न कर पा रहे हों वहां अन्ना और अनुपयोगी पशुओं का पालन कैसे किया जा सकता है,यह सोचनीय विषय है, दूसरी तरफ यह भी देखना है कि
विविध धर्मों,कर्मों,वर्गों से सम्पन्न है हमारा महान भारत,किसी एक की भावनात्मक सोच या श्रद्धा सारे समुदाय पर नहीं थोपी जा सकती है,कोई माने या न माने ये किसी भी दृष्टि से न्यायोचित नहीं है,जहां दिनरात कठिन परिश्रम करके भी किसान अपने बच्चों का लालन,पालन-पोषण नहीं कर पा रहा है,ठ्ठुआ पशुओं को कैसे पाल सकता है,अनुपयोगी व ठ्ठुआ पशुओं का हमेशा से निस्तारण होता आया है,इसे मात्र एक निजी सोच के चलते बन्द करने का तरीका अपनाया तो गया है पर यह उससे भी ज्यादा कष्टकारी व दुष्प्रभावकारी साबित होगा,हमारे समाज,समुदाय,सरकार को इस समस्या का समय से सारभौमिक समाधान खोजना चाहिए,इसके साथ ही गैर सरकारी,सरकारी अनुदान से चल रही गौशालाओं की वास्तविकता पर भी तीक्ष्ण दृष्टि डालने की आवश्यकता है,हमारे देश में चल रहीं गौशालाओं की हालत भी किसी से छिपी नहीं है,देश की ज्यादातर गौशालाएं कागजों में चल रहीं हैं और बैल,गौएँ दिनरात फसलों को चाट रहे हैं,किसान दिन में वह भी कुछ समय रखवाली कर सकता है,पर वह पूरी रात तो रखवाली नहीं कर सकता है,इसी तरह जब से अन्ना पशुओं की बाढ़ आई है तब से सड़क दुर्घटनाओं में भारी वृद्धि हुई है,जिससे तमाम लोगों की जाने भी जा चुकी हैं क्योंकि खेतों से फसलें खाकर अन्ना पशु सड़कों पर ही अपना दिन-रैन बसेरा करते हैं,ये पशु आवारा होने के चलते भारी तादाद में हिंसक भी हो गए हैं,जिससे तमाम लोगों की जाने भी जा चुकी हैं, मेरा तो ये सुझाव है देश की गौशालाओं का राष्ट्रीय करण किया जाय,उन्हें विकसित कर समस्त अन्ना पशुओं के विस्थापन,पालन की पूरी जिम्मेदारी उन्हें सौंपी जाय,इस तरह से अन्ना पशुओं के कहर से आम जनता को निजात दिलाई जा सकती है वर्ना हमारे देश की कृषि व किसान का विनाश हो जाएगा, आज दिनोंदिन खाद,बीज,कृषि दवाओं,डीजल,सिंचाई के मूल्यों में मँहगाई की मार हो रही है,सरेआम खाद,बीज,दवाएं नकली बिक रही हैं,कृषि उपयोगी संसाधनों का किसानों के पास भारी टोटा हैं,इसके लिए निर्धारित विभाग भ्रष्टाचार और अनदेखी में नख से शिख तक डूबे हैं, वहां पात्रों की सुनवाई नहीं होती है,घाघ और अपात्रों की मिली भगत से कृषि योजनाओं का बन्दर बांट हो रहा है,किसानों को मंहगे मूल्य पर नकली कृषि उपयोगी खाद,बीज,दवाएं थोपकर सरेआम डाका डाला जा रहा है,बैंकों,सहकारिता सम्बन्धी संघों, समितियों, किसान सेवा केंद्रों,कृषि रक्षा इकाइयों में चल रही
कृषि ऋण,कृषि बीमा, ऋण माफी,निःशुल्क योजनाएं संचालित किए जाने में घपले-घोटाले हो रहे हैं,इधर सरकार द्वारा चलाई गई किसान सम्मान योजना भी धरातल पर खरी नहीं उतर रही है,अब तक आधे-अधूरे किसानों को ही नियमित धनराशि मिली है,मेरे हिसाब से ये भी योजना भी कारगर व सम्मानजनक नहीं है,इसके स्थान पर किसानों को खाद,बीज ,दवाओं की सुविधा मिलनी चाहिए थी, इसी तरह सरकार की कृषि ऋण माफी योजना भी कारगर साबित नहीं हुई,उसमें भी ज्यादातर बईमानों और अपात्रों को लाभ मिला,उसमें विसंगतियों के चलते उन्हें लाभ मिला जिन्होंने कृषि ऋण का धेला भी जमा नहीं किया,जब कि होना यह चाहिए कि उन्हें इसका लाभ दिया जाता जिन्होंने कुछ या आधे-परधे जमा किये,या फिर केवल सबका ब्याज माफ किया जाता,इससे सरकारी कोष का घाटा भी नहीं होता और सबको लाभ मिल जाता,पर ऐसा नहीं हुआ,ऋण माफी योजना के क्रियान्वयन में बैंक से लेकर जिले तक गड़बड़ी हुई जिससे तमाम पात्रों को लाभ नहीं मिला,एक भुक्त भोगी कृषक ने बताया कि वह कृषि ऋण माफी योजना के लिए सम्बन्धित बैंक शाखा से पात्र साबित किया गया,जिसका तहसील में स्थापित कंट्रोल रूम द्वारा अनुमोदन भी किया गया पर जिले में स्थापित कमेटी ने आंख मूँदकर अपात्र कर दिया,कंहा जाता बेचारा किसान,मन मसोसकर रह गया,इसी तरह फ़सल योजनाएं का बीमा भी किसानों को नहीं मिल रहा है,जब कि सर्व विदित है कि मौसम की मार,कृषि बीमारियों के दुष्प्रभाव,अब एक और महा त्रासदी 'अन्ना पशुओं के कहर' के चलते फ़सलों का भारी नुकसान हो रहा है,इस पर कृषि बीमा के तहत क्षति पूर्ति मिलनी चाहिए,
ये अन्ना पशु समाज में वर्ग संघर्ष का कारण भी बड़ी तेजी से बन रहे हैं,यह बात सबसे ज्यादा चिन्ता जनक है,जब दिनरात अथक परिश्रम कर उगाई गई किसान की फसलों पर अन्ना पशुओं की सेना आक्रमण करती है तो पीड़ित किसान अपने खेत से आवारा पशुओं को खदेड़कर बाहर करता है,तो आवारा पशु दूसरे खेतों में जाते हैं तब किसानों में आये दिन आपस में विवाद टकराव होता है,जिससे कभी-कभी हालत खून-खराबे की हो जाती है,अभी ताजा उदाहरण है औरैया जिले के बेला थाना क्षेत्र में एक दूसरे के खेतों में अन्ना पशु हांकने को लेकर आधा दर्जन गांवों के किसानों में खूनी संघर्ष हुआ जिसमें दोनों तरफ के किसान गंभीर रूप से घायल हो गए जिनका विभिन्न अस्पतालों में उपचार चल रहा है,इस बात को लेकर थाने में मुकदमें भी दर्ज हुए हैं, ये अन्ना पशुओं को लेकर हुआ एक ही विवाद नहीं है,येआम बात है,जिससे समाज में आपसी वर्ग संघर्ष बढ़ रहा है, मेरा ये खुद से सवाल है-
"ये कैसी है रीति हमारी, नहीं समझ में कुछ भी आता, पूजा करते हैं पशुओं की, दर-दर मानव ठोकर खाता" इसके अलावा अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह है कि
दुर्घटनाओं, घटनाओं,भूख, बीमारियों के चलते अन्ना पशुओं की हालत भी बहुत खराब हो रही है,अक्सर देखने को मिलता है कि भारी तादाद में दुर्घटनाओं में आवारा पशु मरते हैं,व घायल होते हैं जो देखरेख,उपचार,शव निस्तारण के अभाव में जंगली जानवरों का निवाला बन रहे हैं उन्हें सरेआम कौए,कुत्ते नोंचते खाते हैं,सड़कों के किनारे, रास्तों,जंगलों में तमाम मरे व सड़े पशु देखे जा सकते हैं,
भले ही केवल एक वर्ग,धर्म के आस्था का सवाल हो "गो वध पर प्रतिबंध" तो ठीक है पर ये पशु वध बंदी का स्वरूप समुदाय, समाज पर खरा नहीं उतर रहा है,इन आवारा पशुओं में गायें कम होती हैं पर सांड भारी तादाद में होते हैं,अब हल तो चलते नहीं हैं,इन सांडों का हल क्या होगा,इस पर सरकार को सोचना चाहिए, दूसरी ओर जैविकीय परिवर्तनों के चलते देशी-पारंपरिक कृषि बीजों की तरह देशी-पारंपरिक गायें अब दुधारू नहीं रहीं हैं,उन्हें कितना भी खिलाओ वांछित मात्रा में दूध नहीं देती हैं,इसी लिए ये पशु पालकों पर भारू हो गईं हैं,जहां हमारे देश के किसान प्रकृति के प्रकोप,बदलते पर्यावरण,मौसम की मार से त्रस्त जहाँ अपने बच्चों का पेट नहीं पाल पा रहे हैं वहां ये आशा की जाय कि किसान ठठुआ पशु पाले सरासर अनदेखी होगी,दूसरी ओर समाज से मांसाहार बन्द करने की अपेक्षा की जाय वह भी सर्व समाज को स्वीकार्य नहीं है,क्यों कि मांसाहार को लेकर सबकी आस्थाएं भिन्न हैं,वर्तमान समय में मांसाहार का इतना प्रचलन बढ़ा है कि कोई भी वर्ग अछूता नहीं रहा है, इसकी तमाम अपनी भौगोलिक परिस्थितियां भी हैं,अपने देश में ही तमाम ऐसे स्थान हैं जहां सभी समुदायों में बहुतायत से मांसाहार का प्रचलन है,जहां से विश्व विख्यात विद्वान पैदा हुए,विज्ञान ने भी मांसाहार को प्रतिबंधित नहीं किया,दुनियां किसी भी देश में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता, हम गौरवशाली हैं कि हम मंगल और चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पंहुच चुके हैं ऐसी स्थितियों को देखते हुए हमारे देश की पशु वध बन्दी वैश्विक सोच से कदापि मेल नहीं खा रही है,इस विकराल समस्या को देखते हुए इसमें परिवर्तन की आवश्यक आवश्यकता है,काश हमारे देश में " समाज,समुदाय को खोखला कर रहे नशे और नशीले पदार्थों पर प्रतिबन्ध होता जिसकी सर्व समाज,समुदाय,संसार में सकारात्मक चर्चा होती।।
जय हिंद जय जगत