जिस दिन बेटी जलती है (कविता)

  जिस दिन बेटी जलती है
"पिछले पापी को सजा नहीं, 
एक नया पाप पल जाता है।
जिस दिन बेटी जलती है, ये संविधान जल जाता है।


अनुच्छेद में जिगर नहीं, 
है धाराओं में धार नहीं।
द्रुपदा का चीर बचे कैसे, कोई गिरधर का अवतार नहीं।


देख दरिंदों की हरकत को, पत्थर भी गल जाता है।
जिस दिन बेटी जलती है, ये संविधान जल जाता है।


सरकारों के नाक तले, 
जब खुले दरिंदे पोषित हों।
गद्दारों को संरक्षण हो, आम आदमी शोषित हों।


जली लाश को देख राष्ट्र का, 
मन मस्तक हिल जाता है।
जिस दिन बेटी जलती है, ये संविधान जल जाता है।


कितना दर्द सहा होगा, सोचो एक अबला नारी ने।
क्या क्या सपने देखे होंगे, पापा की राजदुलारी ने।


खाकी का खागा खाक हुआ, 
बस यही मौन खल जाता है।
जिस दिन बेटी जलती है, ये संविधान जल जाता है।


अबला का चोला बहुत हुआ, 
अब सबला बनकर युद्ध करो!
दो अग्निकुंड में आहुति,
 ये राष्ट्र बहन तुम शुद्ध करो!
जहां भेड़िये पलते हों,
 तुम आग लगा दो छप्पर में
चामुंडों का शीश चढ़ा दो काली मां के खप्पर में।
         
                                      उपासना राजपूत
                                   परिषदीय अध्यापिका