महायोद्धा थे आल्हा और ऊदल
वीरभूमि बुंदेलखंड जिसने एक से बढ़ कर एक शूरमा दिए जिनकी कीर्ति वीररस के गीतों में आज भी जीवित है।

आल्हा, ऊदल दो वीर महाप्रतापी योद्धा भाई जिनके बारे में कहावत है कि इनसे तलवारें हार गई। आल्हा और ऊदल का पूरा नाम आल्ह सिंह और उदय सिंह था, इनके पिता बच्छराज सिंह दो भाई थे एवं उस समय उत्तर भारत के सबसे बड़े शासक चंदेल वंश के राजा बच्छराज सिंह और दसराज सिंह को अपने पुत्र की तरह मानते थे और ये दोनों चंदेल राजवंश की सेना के प्रधान सेनापति थे।

आल्हा-ऊदल के वंश की उत्पत्ति को लेकर इतिहासकारों का ये मत है कि इनके पिता बच्छराज सिंह ' वनाफर ' कुल के थे जिसकी उत्पत्ति वनाफ़र अहीरों से हुई थी ।

मध्यप्रदेश में यदुवंशी अहीरों की दो शाखा बहुत प्रसिद्ध है "हवेलिया अहीर" और "वनाफर अहीर" अर्थात वनों में रहने के कारण वनाफ़र कहलाए, बच्छराज सिंह का विवाह उस समय ग्वालियर के हैहय शाखा के यदुवंशी अहीर राजा दलपत सिंह की राजपुत्री देवल से हुआ थी। ग्वालियर के यदुवंशी अहीर राजा दलपत सिंह की राजकुमारी देवल के शौर्य की चर्चा पूरे मध्यभारत में थी।

मान्यता के अनुसार एक बार राजकुमारी देवल ने एक सिंह को अपने शमशीर के एक ही वार से ध्वस्त कर दिया था एवं इस घटना को देख बच्छराज बहुत प्रभावित हुए ।

बच्छराज राजकुमारी देवल से विवाह प्रस्ताव लेकर राजा दलपत सिंह के पास पहूंचे, दलपत सिंह ने विवाह के प्रस्ताव को स्विकार कर लिया।

वनाफ़र अहीरों और हैहय अहीरों में आपस में शादी ब्याह की परंपरा पुरानी थी एवं बच्छराज सिंह की माता भी हैहय शाखा की अहीर थीं

बच्छराज सिंह और राजकुमारी देवल को माँ शारदा की कृपा से आल्हा ऊदल के रूप में दो महावीर पुत्रों की प्राप्ति हुई।देवल और बच्छराज के इन पुत्रों का शौर्य दिल्ली के पृथ्वीराज चौहान से भी बढ़कर था। पृथ्वीराज चौहान और आल्हा ऊदल के बीच 52 बार युद्ध हुआ और हर बार पृथ्वीराज की सेना को भारी क्षति हुई। बुंदेली इतिहास में आल्हा ऊदल का नाम बड़े ही आदर भाव से लिया जाता है। बुंदेली कवियों ने आल्हा का गीत भी बनाया है। जो सावन के महीने में बुंदेलखंड के हर गांव गली में गाया जाता है।

महोबा में स्थित माँ शारदा शक्ति पीठ पृथ्वीराज और आल्हा के युद्ध की साक्षी है।

 

पृथ्वीराज ने बुन्देलखंड को जीतने के उद्देश्य से ग्यारहवी सदी के बुन्देलखंड के तत्कालीन चन्देल राजा परमर्दिदेव (राजा परमाल) पर चढाई की थी एवं राजा परमाल को परास्त करने के लिए उनकी राजकुमारी बेला के अपहरण की नीति बनाई।

कीरत सागर के मैदान में महोबा व दिल्ली की सेना के बीच युद्ध हुआ। इसमें पृथ्वीराज चौहान की पराजय हुई और इसी रण में आल्हा ऊदल ने पृथ्वीराज के प्राण जीवनदान में दिए।

मां शारदा के परम उपासक आल्हा को वरदान था कि उन्हें युद्ध में कोई नहीं हरा पायेगा। 

 

बैरागढ़ का युद्ध

 

आल्हा ऊदल और पृथवीराज के बीच आखिरी बार युद्ध बैरागढ़ में हुआ था। बुंदेलखंड को जीतने के लिए पृथ्वीराज ने आखिरी बार चढ़ाई करी, वीर योद्धा आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान से युद्ध के लिए बैरागढ़ में ही डेरा डाल रखा था। यहीं वह पूजा अर्चना करने आए तो मां शारदा ने साक्षात दर्शन देकर उन्हें युद्ध के लिए सांग दी। काफी खून खराबे के बाद पृथ्वीराज चौहान की सेना को पीछे हटना पड़ा। वीर ऊदल इस रण में वीरगति को प्राप्त हुआ। युद्ध से खिन्न होकर आल्हा ने मंदिर पर सांग चढ़ाकर उसकी नोक टेढ़ी कर वैराग्य धारण कर लिया। मान्यता है कि मां ने आल्हा को अमर होने का वरदान दिया था। लोगों की माने तो आज भी कपाट बंद होने के बावजूद कोई मूर्ति की पूजा कर जाता है। 

"बड़े लड़ैया महोबे वाले खनक-खनक बाजी तलवार
बड़े लड़इया आल्हा-ऊदल जिनसे हार गई तलवार...॥